(क) प्राकृतिक संसाधन – Notes Bihar Board 10th Geography Chapter 1 A

10 Min Read

(क) प्राकृतिक संसाधन – Notes (Natural resources)

प्राकृतिक संसाधन: भूमि संसाधन

भूमि संसाधन का महत्व
मानव आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संसाधन सबसे महत्वपूर्ण हैं। भूमि कृषि, वानिकी, खनन, और परिवहन जैसी आर्थिक गतिविधियों का आधार है। यह सीमित संसाधन है, इसलिए इसका उपयोग सावधानी और योजना के साथ करना आवश्यक है।

भारत में भूमि स्वरूप
भारत में उपलब्ध भूमि के 43 प्रतिशत भाग पर मैदान फैले हुए हैं, जो कृषि और उद्योगों के विकास के लिए उपयुक्त हैं। देश का 30 प्रतिशत हिस्सा पर्वतीय क्षेत्र है, जो जल स्रोत, पर्यटन और पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक है। भारत का 27 प्रतिशत भाग पठार के रूप में विस्तृत है, जो खनिज, जीवाश्म ईंधन और वन संपदा के भंडार के रूप में कार्य करता है।

मृदा (Soil)

मृदा की परिभाषा
मृदा पृथ्वी की सबसे ऊपरी पतली परत है, जो पौधों और जीवों के लिए पोषण प्रदान करती है। यह एक नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन है।

मृदा का महत्व
मृदा की उर्वरता आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करती है और देश की संपत्ति और संस्कृति का संरक्षण करती है। मृदा एक जीवंत तंत्र है, जिसका सही संरक्षण आवश्यक है।

मृदा निर्माण प्रक्रिया
मृदा का निर्माण चट्टानों के टूटने और भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तनों से होता है। यह प्रक्रिया लाखों वर्षों में पूरी होती है, और इसके परिणामस्वरूप कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा बनती है।

मृदा निर्माण के कारक

भौतिक कारक
धरातल की आकृति, जलवायु और मूल चट्टान मृदा निर्माण को प्रभावित करते हैं।

जैविक कारक
वनस्पति और जैविक पदार्थ (ह्यूमस) मृदा निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

अन्य कारक
तापमान में परिवर्तन, जल की गतिविधि, पवन और हिमनद जैसे कारक मृदा निर्माण में योगदान करते हैं।

मुख्य तत्त्व
मृदा निर्माण के दौरान इसकी गहराई, रंग, आयु, और रासायनिक तथा भौतिक गुणों को निर्धारित किया जाता है।

भारत में मृदा का वर्गीकरण

भारत में मृदा का वर्गीकरण इसके भौतिक और रासायनिक गुणों के आधार पर किया जाता है।

मृदा के प्रकार एवं वितरण

1. जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil)

  • यह मृदा भारत में सबसे व्यापक और उपजाऊ है, जो मुख्य रूप से उत्तर भारत के मैदानों में गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदियों द्वारा निर्मित हुई है।
  • राजस्थान और गुजरात में भी यह मृदा संकरी पट्टी के रूप में फैली हुई है।
  • जलोढ़ मृदा का गठन बालू, सिल्ट और मृत्तिका के मिश्रण से होता है।
  • जलोढ़ मृदा के दो प्रमुख प्रकार होते हैं: पुराना जलोढ़ (बांगर) और नया जलोढ़ (खादर)।
  • बांगर में कंकड़ और बजरी की मात्रा अधिक होती है, जबकि खादर में महीन कण होते हैं, जो कृषि के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं।
  • यह मृदा अत्यधिक उपजाऊ होती है, लेकिन इसमें नाइट्रोजन और जैविक पदार्थों की कमी पाई जाती है।
  • मुख्य फसलें: गन्ना, चावल, गेहूँ, मक्का।
  • उत्तर बिहार में बालू प्रधान जलोढ़ को “दियारा भूमि” कहते हैं। यह मक्का की कृषि के लिए विश्व प्रसिद्ध है।

2. काली मृदा (Black or Regur Soil)

  • काली मृदा का रंग काला होता है, क्योंकि इसमें एल्युमीनियम और लौह यौगिकों की उच्च मात्रा पाई जाती है।
  • इसे ‘रेगुर’ या ‘काली कपासी मृदा’ के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह मृदा महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक पाई जाती है।
  • काली मृदा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें नमी को बनाए रखने की अत्यधिक क्षमता होती है, जिससे यह विशेष रूप से कपास की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
  • इसमें कैल्शियम, पोटाश, और चूना जैसे पौष्टिक तत्व होते हैं, लेकिन फास्फोरस की कमी पाई जाती है।
  • मुख्य फसलें: कपास, गन्ना, प्याज, गेहूँ।

3. लाल और पीली मृदा (Red & Yellow Soil)

  • यह मृदा मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में पाई जाती है, और इसका रंग लौह अंश के कारण लाल होता है।
  • जलयोजन के बाद, यह मृदा पीले रंग में बदल जाती है।
  • लाल और पीली मृदा का निर्माण मुख्य रूप से ग्रेनाइट और नीस जैसी रवेदार आग्नेय चट्टानों के विघटन से हुआ है।
  • इस मृदा में जैव पदार्थों की कमी होती है, जिसके कारण यह जलोढ़ मृदा और काली मृदा की तुलना में कम उपजाऊ होती है।
  • उर्वरकों और सिंचाई की व्यवस्था से इसकी उपज बढ़ाई जा सकती है।
  • मुख्य फसलें: चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू।

4. लैटेराइट मृदा (Laterite Soil)

  • लैटेराइट मृदा का नाम ग्रीक शब्द “लैटर” (ईंट) से लिया गया है, क्योंकि इसका रंग लाल और कठोर होता है।
  • इस मृदा का विकास उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में होता है।
  • भारत में यह मृदा मुख्य रूप से कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उड़ीसा की पहाड़ियों पर पाई जाती है।
  • लैटेराइट मृदा में ह्यूमस की मात्रा बहुत कम होती है, और यह अत्यधिक निक्षालन (Leaching) का परिणाम है।
  • इसे उर्वरकों के साथ उपजाऊ बनाया जा सकता है, और यहां चाय, कॉफी, और काजू की खेती की जाती है।
  • मुख्य फसलें: चाय, कॉफी, काजू।

5. मरूस्थलीय मृदा (Desert Soil)

  • मरूस्थलीय मृदा शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है, जहां वर्षा बहुत कम होती है और ह्यूमस की मात्रा भी बहुत कम होती है।
  • यह मृदा लाल या हल्के भूरे रंग की होती है और इसमें संस्तरों का विकास बहुत कम होता है।
  • राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चिमी हरियाणा और दक्षिणी पंजाब में यह मृदा पाई जाती है।
  • मरूस्थलीय मृदा में वनस्पति और उर्वरक खनिजों का अभाव होता है, लेकिन सिंचाई की व्यवस्था करने से यहां कपास, चावल और गेहूँ की खेती की जा सकती है।
  • मुख्य फसलें: कपास, चावल, गेहूँ।

6. पर्वतीय मृदा (Mountain Soil)

  • पर्वतीय मृदाएँ आमतौर पर पर्वतीय और पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जहां पर पर्याप्त वर्षा और वनस्पति पाई जाती है।
  • ये मृदाएँ जटिल और विविधता से भरी होती हैं, और नदी घाटियों में जलोढ़ मृदा तथा ऊंचे इलाकों में मोटे कणों वाली अपरिपक्व मृदा पाई जाती है।
  • पर्वतीय मृदाओं में अम्लीय गुण होते हैं, और उच्चतम क्षेत्रों में यह ह्यूमस रहित हो सकती है।
  • नदी घाटी के निम्नवर्ती क्षेत्रों में यह मृदा उपजाऊ होती है, और यहां फल, चावल, और आलू की खेती की जाती है।
  • मुख्य फसलें: फल, चावल, आलू।

भूमि उपयोग का बदलता स्वरूप

भूमि उपयोग के प्रकार:

  1. वन विस्तार: वन क्षेत्र का उपयोग पर्यावरणीय संतुलन और लकड़ी, फल, एवं जड़ी-बूटी के लिए।
  2. कृषि अयोग्य बंजर भूमि: पथरीली और अनुपजाऊ भूमि।
  3. गैर-कृषि कार्य भूमि: इमारतें, सड़कें, उद्योग आदि के लिए उपयोग।
  4. स्थायी चारागाह और गोचर भूमि: पशुओं के लिए चराई भूमि।
  5. बाग-बगीचे एवं उपवन: फलों और फूलों के उत्पादन के लिए भूमि।
  6. कृषि योग्य बंजर भूमि: जिसका उपयोग 5 वर्षों से नहीं हुआ।
  7. वर्तमान परती भूमि: एक या दो वर्षों तक उपयोग न की गई भूमि।
  8. लंबी अवधि की परती भूमि: 5 वर्षों से अधिक समय तक उपयोग न की गई भूमि।
  9. शुद्ध बोयी गई भूमि: फसल उत्पादन के लिए नियमित रूप से उपयोग की गई भूमि।

भारत में भूमि उपयोग का स्वरूप

भूमि उपयोग को प्रभावित करने वाले कारक:

भौतिक कारक: भू-आकृति, जलवायु, मृदा।

मानवीय कारक: जनसंख्या घनत्व, प्रौद्योगिकी, संस्कृति।

प्रमुख तथ्य:

भारत के कुल क्षेत्रफल का: 93% भूमि उपयोग के आँकड़े उपलब्ध हैं।

स्थायी चारागाह का क्षेत्र: सीमित है, जिससे पशुधन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

कुल क्षेत्रफल का: केवल 54% भाग कृषि योग्य है।

पंजाब और हरियाणा: खेती का प्रतिशत 80% है।

अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि: खेती का प्रतिशत 10% से भी कम है।

वन विस्तार:

  • पर्यावरण संतुलन के लिए 33% क्षेत्र वन होना चाहिए।
  • वर्तमान में भारत में केवल 20% क्षेत्र पर ही वन हैं।

भू-क्षरण और भू-संरक्षण

भू-क्षरण के कारण:

प्राकृतिक कारक: जल, पवन, हिमानी और समुद्र लहरें।

मानवीय क्रियाएँ: वनोन्मूलन, अति-पशुचारण, खनन, रसायनों का अत्यधिक उपयोग।

भू-क्षरण के प्रभाव:

  • जलवायु परिवर्तन, मृदा की गुणवत्ता का ह्रास।
  • सिंचाई से लवणीयता और जलाक्रांतता बढ़ना।
  • खनिज आधारित उद्योगों से प्रदूषण।

भू-संरक्षण के उपाय:

फसल चक्रण: मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा बनाए रखना।

समोच्च जुताई: पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा अपरदन रोकना।

पट्टिका कृषि: पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में उपयोगी।

जैविक खाद का प्रयोग: रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर प्राकृतिक खाद का उपयोग।

वृक्षारोपण: वृक्षारोपण से मृदा संरक्षण और ह्यूमस में वृद्धि।

जल संरक्षण: वर्षा जल संचयन और सिंचाई के आधुनिक तरीकों का उपयोग।

निष्कर्ष:

मानव क्रियाओं से मृदा का संरक्षण संभव है, पर इसके लिए दीर्घकालिक योजना और जिम्मेदारी आवश्यक है। उचित प्रबंधन और जागरूकता के माध्यम से ही मृदा एवं भूमि का संरक्षण किया जा सकता है।


(क) प्राकृतिक संसाधन – Notes Bihar Board 10th Geography Chapter 1 A

Share this Article